‘पुरुब देस में टोना बेस बा, पानी बहुत कमजोर…’
अपने समय के प्रख्यात नाटककार भिखारी ठाकुर ने यह पंक्ति लिखी है। अपने एक मशहूर नाटक में उन्होंने इस पंक्ति को संवाद के रूप में अपनी पत्नी से कहलवाया है। प्रसंग यह है कि भिखारी ठाकुर बंगाल के इलाके की यात्रा पर जाना चाहते हैं, अपनी पत्नी से जब वे इस निश्चय का जिक्र करते हैं, तो उनकी पत्नी उन्हें यह कह कर रोकने की कोशिश करती है कि आप बंगाल मत जायें, क्योंकि पूरब के देसों में, इलाकों में बहुत अधिक जादू-टोना होता है, वहां का पानी बहुत कमजोर होता है। भिखारी ठाकुर के नाटकों में और भोजपुरी के दूसरे लोकगीतों में पूरब देस, यानी बंगाल और असम के जादू-टोने के जिक्र का यह इकलौता मामला नहीं है। कई बार ऐसे जिक्र आये हैं, जिसमें कहा गया है कि बंगाल की औरतें जादूगरनी होती हैं, वे पुरुषों को भेड़ बनाकर रख लेती हैं। ऐसे में जब रिया चक्रवर्ती को लेकर टीवी चैनलों के कार्यक्रम के ऐसे प्रोमो बने कि रिया ने सुशांत पर काला जादू चला दिया है, तो मुझे जरा भी हैरत नहीं हुई। भोजपुर इलाके में ही नहीं, पूरे बिहार में कई सौ सालों से बंगाल की औरतों को लेकर यह धारणा, यह पूर्वाग्रह हर जगह मौजूद है। समाज के हर तबके में।

हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मृत्यु की जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंप दिया है। उन जजों को अपने पक्ष में फैसला सुनाने के लिए रिया चक्रवर्ती अपने काले जादू का इस्तेमाल नहीं कर पायीं। बिहार के डीजीपी ने रिया को उसकी औकात बता दी है और बंगाल के जादू पर बिहार की अस्मिता की भारी जीत हुई है। मगर क्या अब भी बिहार बंगाल की औरतों के काला जादू के भय से उबर पायेगा, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि यह वह सिंड्रोम है, जो बिहार के लोगों को अमूमन एक हजार साल से प्रभावित कर रहा है। लोग अपने परिजनों को न बंगाल जाने देना चाहते रहे हैं, न असम के कामरूप कामाख्या। बिहार की महिलाएं पिछले एक हजार साल से सशंकित रही हैं कि कहीं बंगाल की औरतें उनके पति को वहीं रोक न ले, भेड़ न बना ले। इसके बावजूद सदियों से बिहार के लोग रोजी-रोजगार के लिए बंगाल और खासकर कोलकाता जाते रहे हैं, क्योंकि उनके पास वहां गये बिना कोई चारा नहीं है।
सिर्फ भोजपुरी लोकगीतों में ही नहीं, बल्कि मिथिला की लोकगाथाओं में भी बंगाल और असम के काला जादू का जिक्र हमेशा से मिलता रहा है। इस क्षेत्र में कारिख महाराज नामक एक बहुत पॉपुलर लोकदेव हैं, उनकी गाथा में भी इस बात के जिक्र मिलते हैं कि उनके पिता को कामरूप कामाख्या में औरतों ने कैद करके रख लिया है, वे उन्हें छुड़ाने जाते हैं। एक अन्य लोकगाथा में नायक जब कामाख्या जाने की जिद कर बैठता है, तो उसकी मां सिहर उठती है और अपनी घोड़ी से कहती है कि तुम इसे ले जाओ और सकुशल ले आना। इसके अलावा मिथिला के कई लोकगाथाओं में डायनों, जोगिनों और जादूगरनियों का जिक्र मिलता है, जो पुरुषों को शक्तिहीन बनाकर अपने कब्जे में कर लेती हैं। हालांकि इनमें से सब बंगाल की ही नहीं होतीं, कई जोगिनियां और जादूगरनी स्थानीय भी होती हैं।
हालांकि एक जमाने में, खास कर पाल वंश के शासन के दौर में जब विक्रमशिला महाविहार तंत्र-मंत्र पर आधारित वज्रयानी शाखा का बड़ा शिक्षण केंद्र था और गंगा के दूसरे किनारे पर सहरपा और दूसरे सिद्ध संतों का भरपूर प्रभाव था, तब मिथिला का इलाका भी बंगाल का ही हिस्सा था। तंत्रयान और वज्रयान का यहां भी उतना ही चलन था, जितना बंगाल में था। तंत्र मत की ये परंपराएं बंगाल, मिथिला, असम और ओड़िशा की साझा परंपरा थी। तभी भिखारी ठाकुर के गीतों में सिर्फ बंगाल का जिक्र नहीं पूरब देस का जिक्र है। उस पद में कहा गया है कि पूरब देस में बहुत अधिक जादू-टोना होता है।
उस दौर में औघड़ संन्यासी तंत्र साधना के लिए किशोरी कन्याओं को घर से उठा लेते थे, बाद में वे कन्याएं जोगिनियां बन जाती थीं। हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में ऐसी जोगिनियों का भरपूर जिक्र मिलता है। संभवतः उसी दौर में यह धारणा बनी होगी कि बंगाल की, यानी कथित रूप से इस पूरे इलाके की औरतें काला जादू जानती हैं और पुरुषों को अपने वश में कर लेती हैं। और यह धारणा आज तक किसी न किसी रूप में मौजूद हैं। दिलचस्प है कि वृहद स्तर पर यह धारणा सिर्फ बंगाल की औरतों के बारे में नहीं है, बल्कि उन तमाम औरतों के बारे में है, जो अपने पति को या अपने प्रेमी को अपने प्रेम में इस तरह बांध लेती हैं, कि वह अपने परिवार को भूल जाता है। इस तरह की औरतों को समाज कभी अच्छी निगाह से नहीं देखता।
क्योंकि हमारे समाज का इस मामला में बहुत साफ नजरिया है, पुरुषों को औरतों का गुलाम नहीं होना चाहिए, उसे अपने कब्जे में करके रखना चाहिए। अगर पुरुष औरतों के वश में हो गया, जोरू का गुलाम बन गया तो समझो उसके पुरुषत्व पर दाग लग गया। ऐसे पुरुषों को हमारा समाज तो पसंद नहीं ही करता है, उस पुरुष के माता-पिता ऐसी औरतों से बहुत सतर्क रहते हैं, जो उनसे उनका बेटा छीन लेती है। हालांकि इस मसले पर कभी ठीक से विचार नहीं किया जाता कि आखिर वह कौन सी बात होती है कि कोई पुरुष अपने माता-पिता को भूल कर किसी स्त्री के वश में हो जाता है। उस पुरुष के जीवन का वह कौन सा अभाव होता है, जिसकी पूर्ति वे जादूगरनी औरतें करती हैं। जिसकी वजह से वह उसे छोड़ नहीं पाता। वह काला जादू है, प्रेम है या प्रेम का अभिनय। यह सवाल हमसे जिस गंभीर विचार की मांग करता है, हम उसे उतना अटेंशन नहीं दे पाते। क्योंकि हमारा समाज पहले से तय करके बैठा है कि अपने माता-पिता को छोड़कर पुरुष का किसी स्त्री के वशीभूत हो जाना ठीक नहीं है।
यह बात हमारे पारिवारिक जीवन में इस तरह शामिल है कि बेटे की शादी के वक्त उसकी मां उसे रोते हुए विदा करती है। यह सोचते हुए कि आज से यह अब सिर्फ उसका बेटा नहीं रहा, उसके जीवन की डोर एक दूसरी स्त्री संभालेगी। वह उस हिस्सेदारी को बर्दास्त नहीं कर पाती है। फिर बाद में यही सास-बहू के साश्वत द्वंद्व में बदल जाता है। जबकि मिथिला में जब शादियां होती हैं, जो कोहबर में उसके साथ उसके ससुराल की औरतें नैना-जोगिन का विधान खेलती है, ताकि वह अपनी पत्नी के आकर्षण में उसके नैनों में बंधा रहे।
सुशांत सिंह राजपूत, रिया चक्रवर्ती और सुशांत के परिवार वालों के आपसी द्वंद्व को सीबीआई कितना सुलझा पाती है, यह देखने वाली बात होगी। अगर सीबीआई यह बता पाये कि रिया ने सुशांत पर कितना और कैसा जादू किया था। वह जादू इकतरफा था या दोतरफा। वह प्रेम था या छल। तो इसे समझना दिलचस्प होगा। मगर इसमें कोई शक नहीं कि हमारा समाज आज भी जादू-टोना और वशीकरण की धारणा पर पूरा भरोसा करता है। लंबे सफर के दौरान इसी वजह से दीवारों पर वशीकरण करने और वशीकरण का असर तोड़ने वाले जादूगरों के विज्ञापन खूब लिखे मिलते हैं। लोग निर्मल बाबा जैसे लोगों की बेमतलब बातों पर भरोसा करते हैं। कथित रूप से खुद रिया सुशांत को डिप्रेशन से निकालने के लिए तांत्रिकों और बाबाओं के पास ले जाती है।हालांकि व्यक्तिगत रूप मे इन जादू, टोने और वशीकरणों पर मेरा बहुत अधिक भरोसा नहीं है। मगर न चाहते हुए भी उस वशीकरण पर भरोसा करना पड़ता है, जो हमारा आज का मेनस्ट्रीम मीडिया, खास कर टीवी मीडिया रोज दिन भर अपने करोड़ों दर्शकों पर चलाता रहता है। तभी तो बिहार के गांव-गांव तक लोग सुशांत सिंह, रिया चक्रवर्ती और बंगाल के काला जादू की चर्चा कर रहे हैं। इस बात को भूल कर कि उनके गांव में बाढ़ आयी हुई है, दुनिया में कोरोना का असर बढ़ता ही जा रहा है, लोग लगातार बेरोजगार हो रहे हैं, उनके दरवाजे पर मक्के की फसल पड़ी-पड़ी सड़ रही है, यह वह फसल है जिसे अप्रैल-मई में ही बिक जाना था। लोग अपने सवालों को भूल चुके हैं और चीन को मजा चखाने, पाकिस्तान को मजा चखाने और रिया चक्रवर्ती को औकात पर लाने का जश्न मना रहे हैं। रिया के जादू में, बंगाल की औरतों के जादू में बंधना किसी देश, राज्य और समाज के लिए उतना खतरनाक नहीं है, जितना इस मीडिया के जादू में, जिसमें आज लगभग पूरा देश बंधा नजर आता है।